Wednesday, May 9, 2007

बेचैन मन को समझाने के प्रयास में निकले कविता के रंग.....अशांत मन

भौतिकता की ओर भागते मन को समझाने का एक प्रयास......खाली हाथ आये थे खाली हाथ जाना है....



अशांत मन स्वप्निल चित्रों का हट मोह छोड़,
अशांत मन पुलकित नेत्रों में सब दर्पण तोड़,
अशांत मन मृग मरिचिकाओं के मत पीछे दौड़,
अशांत मन विकृत भावों से मत तार जोड़।।

हट छोड़ सब दंभ, लोभ का तर्पण कर दे,
विस्तार हृदय कर, हर क्षोभ का अर्पण कर दे,
नीरस नीरव जीवन में बढ़ उमंग जगा दे,
शांत जल स्पर्श करा तू तरंग जगा दे।।

उठो कि हृदय को बल दो
मन को विद्युत से भर दो ,
भर दो धरा को प्रेम से भर दो,
अम्बर को संबल से भर दो।

देखो फिर से स्वप्न नये से, इच्छाओं को जोड़ो तुम,
संवरण, जीत का कर लो, ना आशाओं को छोड़ो तुम।

Monday, May 7, 2007

कुछ गलतफहमियां .....और उदासी....

उत्साहवर्धन के लिये आप सब लोगों का बहुत बहुत धन्यवाद। परन्तु कुछ मित्रों को गलतफहमियां हो गयी मेरे नाम को लेकर सो ये नाम बदल रहा हूं । फिर मुझे भी लगने लगा है कि अंजाने में मैं एक बहुत बड़े नाम का सहारा ले बैठा.....आशा है ....आगे भी आप लोगों से ऐसे ही दाद और मार्गदर्शन मिलता रहेगा......

प्रस्तुत है.....एक छोटी सी रचना.....उदासी..

अजीब सी बेबसी है अजीब सा दर्द है
जलती दोपहरी में हवा सर्द है...
उफ...ये आवाज सीने में घुटी जाती है...
मौत हुई है दूर मुझसे और हर लम्हा जिंदगी छुटी जाती है...
उदास हूं मैं मेरा दिल उदास है....
ये सुबह की शबनम....
ये शाम की सरगम....
ये दिन की उलझन ....
ये रात का खालीपन....
ये सब उदास है.....
उदासी की हर सिम्त बसेरा है....
न धड़कने मेरी ना सांस मेरा है....
कसक सी दिल में हर रोज़ उठी जाती है.....
हां अब जिंदगी मुझसे छुटी जाती है........

Sunday, May 6, 2007

मन....

मन....
खुले मैदान में नव शावकों सा कुलांचे भरता...
मन...
कस्तूरी मृग की भांति
अपनी ही नाभि से उत्पन्न सुरभि की खोज में भटकता,
मन....
मस्तिष्क देहरी लांघ इच्छाओं, कामनाओं के विराट समुंदर में गोते लगाता....
शाश्वत सत्य मृत्यु से भय क्यों खाता है मन....
हम जानकर भी अंजान बने रहते हैं...
सुमिरिनी की डोर पर वश किस का चला है...
तो मन....
धारित्री और गगन के आभासी मिलन पर मत इतरा...
ये उतना ही झूठ है .....
जितना जीवन

Wednesday, May 2, 2007

चार लाइने....

मैं आज स्वयं से लड़लड़कर
किस मंजिल पर आ पहुंचा
स्तब्ध निशा हर ओर बस रही
ठहरा सा आकाश समुचा..