Sunday, May 6, 2007

मन....

मन....
खुले मैदान में नव शावकों सा कुलांचे भरता...
मन...
कस्तूरी मृग की भांति
अपनी ही नाभि से उत्पन्न सुरभि की खोज में भटकता,
मन....
मस्तिष्क देहरी लांघ इच्छाओं, कामनाओं के विराट समुंदर में गोते लगाता....
शाश्वत सत्य मृत्यु से भय क्यों खाता है मन....
हम जानकर भी अंजान बने रहते हैं...
सुमिरिनी की डोर पर वश किस का चला है...
तो मन....
धारित्री और गगन के आभासी मिलन पर मत इतरा...
ये उतना ही झूठ है .....
जितना जीवन

4 comments:

परमजीत सिहँ बाली said...

अच्छी रचना है।बधाई।लिखते रहे।

Mohinder56 said...

सुन्दर लिखा है आपने, हमें पसन्द आया...लिखते रहिये

Udan Tashtari said...

बहुत स्वागत.

आप ये तो नहीं:

http://mushaira.org/ppage.php?poet_name=Baikal+Utsahi

थोड़ा नाम के चक्कर में उलझ गया था.

स्वागत तो फिर भी है. वही नाम रखने की कोई खास वजह?? बस यूँ ही कौतुहलवश पूछ रहा हूँ. उचित न लगे तो जबाब न दिजियेगा. :)

क्षितिज said...

उड़न तश्तरी जी..ये नाम रखने की कोई खास वजह नही..बस यूं ही..आप सबने उत्साह वर्धन किया ...धन्यवाद...