भौतिकता की ओर भागते मन को समझाने का एक प्रयास......खाली हाथ आये थे खाली हाथ जाना है....
अशांत मन स्वप्निल चित्रों का हट मोह छोड़,
अशांत मन पुलकित नेत्रों में सब दर्पण तोड़,
अशांत मन मृग मरिचिकाओं के मत पीछे दौड़,
अशांत मन विकृत भावों से मत तार जोड़।।
हट छोड़ सब दंभ, लोभ का तर्पण कर दे,
विस्तार हृदय कर, हर क्षोभ का अर्पण कर दे,
नीरस नीरव जीवन में बढ़ उमंग जगा दे,
शांत जल स्पर्श करा तू तरंग जगा दे।।
उठो कि हृदय को बल दो
मन को विद्युत से भर दो ,
भर दो धरा को प्रेम से भर दो,
अम्बर को संबल से भर दो।
देखो फिर से स्वप्न नये से, इच्छाओं को जोड़ो तुम,
संवरण, जीत का कर लो, ना आशाओं को छोड़ो तुम।
Wednesday, May 9, 2007
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2 comments:
हट छोड़ सब दंभ, लोभ का तर्पण कर दे,
विस्तार हृदय कर, हर क्षोभ का अर्पण कर दे,
नीरस नीरव जीवन में बढ़ उमंग जगा दे,
शांत जल स्पर्श करा तू तरंग जगा दे।।
मनोभावों को अच्छा कागज पर उतारा है आपने
बधाई
बढ़िया है, जारी रहो!!
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